रंग याद है : जब फागुन रंग झमकते हों

अस्सी का दशक था और पापा का तबादला लखनऊ हो गया था। हम हज़रतगंज में रहते थे। और होली हर बार की तरह इस बार फिर आ गई थी। नए स्कूल में कान्वेंट की अपेक्षा ज़्यादा अराजकता थी। यहाँ मैंने देखा कि सज़ा के बावजूद बड़ी क्लास के बच्चे होली छुट्टी के पहले अबीर गुलाल हवा में फेंक रहे थे और कह रहे थे—आई लव यू। जिसके लिए यह प्रेम-निवेदन किया जा रहा था वह बखूबी समझ रहा था और प्रतिक्रिया में लजा रहा था या स्टूपिड, ईडियट, बास्टर्ड कह स्कूल गेट के बाहर निकल जा रहा था। लेकिन मुझे इन सब बातों से क्या? मैंने तो पिछले साल कसम खाई थी होली न खेलने की। लिहाज़ा मैं चुपचाप घर चली आयी। होली वाले दिन हमेशा की तरह, पहला बना हुआ पुआ खाया और बालकनी में खड़ी हो गई नीचे जाते, भंग के नशे में चूर लोगों को होली खेलते देखने में। तभी घर की घंटी बजी और पापा ने दरवाज़ा खोला।

‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, वन्दना राग के बचपन की रंगयाद : “जब फागुन रंग झमकते हों”

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फाग की पहली स्मृति मेरे जन्म के शहर इन्दौर की है। माँ का मुँह अँधेरे उठना और मेरा आँख मिचमिचाते हुए उसे एक परछाईं की तरह रसोई के अँधेरे में विलीन होते हुए देखना याद आता है। उसके बाद यादों का सैलाब उमड़ता है।

माँ के जाते ही कैसे मैं पलंग से उठ जाती और चिल्लाती—आज होली है। होलिका-दहन में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं होती—मैं दूर से ही खिड़की से वह नज़ारा देखना पसंद करती। रंग खेलने में लेकिन मेरी दिलचस्पी जुनूनी रहती। मैं जल्दी-जल्दी सुबह छह बजे से ही दिन की तैयारी में लग जाती।

सबसे पहले मैं पुराने कपड़े ढूँढ़ती और बहुत कसमकस कर उन्हे पहनने की कोशिश करती। फिर आधे-अधूरे कपड़े पहने रसोई पहुँच जाती। माँ एक तोष भरी मुस्कान से पुए तल रही होती। पहला तला जुआ पुआ ठंडा हो चुका होता तब तक। माँ उसे ही उठा मेरे मुँह में रख देती। मेरे मुँह में स्वाद का विस्फोट होता और मैं उमंग से लहराते हुए अपने रंग समेटती, पिचकारियों में भरती और गली में निकल जाती। सब बच्चे एक-दूसरे पर रंग की बारिश कर रहे होते और एक-दूसरे को पकड़-जकड़ लाल पीला नीला हरा करने के बाद ही दम लेते। जब दोपहर हो जाती तो हम बेदम घर पहुँचते। डाँट खाते-खाते, सरसों तेल से पहले हमारी रंग छुड़ाई होती, फिर साबुन से रगड़ाई होती और जब तक आँख में आँसू नहीं आ जाते माँ नहलाना नहीं छोड़ती। 

इसके बाद बारी आती, पापा और माँ के बीच बेहोश होकर सोने की। आँख उसके बाद तभी खुलती जब पापा उठाते—चलो, उठो, शाम हो गई, अब फाग गाने वाले आते होंगे।

माँ मुझे सफेद चिकनकारी का कुर्ता-पायजामा पहनाती, बालों की पोनीटैल में सफेद साटन के रिबन बाँधती और मैं इठलाती हुई चल देती बैठकखाने में। वहाँ  फर्श पर सफेद चादर बिछी होती। जिसमें काली टोपी, सफेद अचकन, पहने चार लोग बैठे होते। उनके सामने हारमोनियम, ढोलक और मंजीरे रखे होते। ढोलकवाला उसकी रस्सियों को कस रहा होता। वे मुझे देख प्यार से मुसकुराते—बबुनी नीले रंग से खेली थीं क्या? मैं यह सुन भाग कर आईना देखने चल देती। कानों के पीछे नीली धारियाँ दिखतीं। मन में अजीब-सी तरंग उठती। लगता रंग लगा रहे, छूटे ही नहीं। कितना मज़ा था रंग के खेल में! कुछ दिन याद बनी रहे।

फिर पापा बुलाते—आओ बेटा...

फिर माँ गुलाबी चिकनकारी की साड़ी में आती, हाथ में काजू-बादाम और नारियल की छालियाँ भरी कटोरियाँ लिए। उन कटोरियों को वह बहुत नफासत से मेहमानों के सामने रख देती। वे लोग माँ को सलाम करते और पापा कहते— चलिए रईस जी, शुरु कीजिए।

वे लोग शुरु करते—सिव संकर खेलत फाग, गौरा संगे।

उनके गाने की आवाज़ मोहल्ले में गूँज उठती। धीरे-धीरे अड़ोसी-पड़ोसी घर में आने लगते। वे पहले एक चुटकी अबीर-गुलाल का टीका हमें लगाते और फिर धीरे से फाग के राग पर झूमने लगते। रईस खान उत्साहित हो अपनी मंडली को और उकसाते। कमरे का जोश बढ़ता जाता। चर, अचर  सभी प्राणी राग-रंगोत्सव में समा जाते।

पापा सभी को बताते—हमारे गाँव सिवान के हैं ये लोग। लोग बिहार से सिर्फ पटना को जोड़कर देखते। फिर पापा उन्हें बताते—नहीं, पटना नहीं बिहार में एक जगह है, सारण, उसी में है सिवान और उसी में मधवापुर हमारा गाँव। वहीं पर टोले-मोहल्ले में फाग इस तरह गाया जाता है। होली इसके बिना अधूरी है।

इसके बाद की होली पटना शहर में बीती। बिहार में रहने की पहली होली। जिस कान्वेन्ट स्कूल में मैं पढ़ती थी वहाँ रंग खेलना वर्जित था। फिर भी लड़कियां बैग में चुराकर अबीर-गुलाल रख लाती थीं और टिफ़िन टाइम में एक-दूसरे को लगातीं थीं। फिर बाथरूम में जल्दी-जल्दी जा उसे छुड़ा लेती थीं। अगर किसी लड़की के मुँह या बाल पर कुछ रंग छूट जाते तो उसे कड़ी सज़ा मिलती। कोने में खड़ा कर दिया जाता या क्लास की सभी लड़कियों की पेंसिल उसी से कचरेदानी के सामने खड़ा कर छिलवाई जाती। लेकिन छुट्टी की घंटी बजते ही लड़कियाँ ऐसे भागतीं जैसे कारागार से छूटी हों और मुझ जैसी कुछ लड़कियाँ बैग में छिपाए गुब्बारे निकालतीं उनमें पानी भरतीं और एक-दूसरे पर मारतीं। रिक्शों की कतारें चलतीं और लड़कियाँ रिक्शे में बैठे-बैठे दूसरे रिक्शे पर बैठी लड़कियों को होली है चिल्लाते हुए गुब्बारे मारतीं। असली मस्ती यही है, यही है का गाना मन में बजने लगता।

पहली बार वहीं कदमकुआं, पटना में रहते होली के दूसरे रंग देखे। आज अविश्वसनीय लग सकती है यह बात लेकिन एक बरस कर्पूरी ठाकुर को रंग में सना, साइकिल में पीछे की सीट पर देखा था कभी । हम बच्चे खेल रहे थे धाँय-धाँय होली तभी कॉलेज में पढ़ने वाले एक भइया चिल्ला पड़े—परणाम सर!

हम चौंक कर रुके तो भइया बोले—कर्पूरी ठाकुर थे। उस वक़्त हमने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था। आज लगता है भइया उस होली के दिन गड्ढे में डुबोए जाने वाले थे तभी बोले थे यह, बचने के लिए। फिर भाग खड़े हुए थे।

हमारे कम्पाउन्ड में घास का एक छोटा सा मैदान था। उसी में मिट्टी और कादो-कीचड़ घोलकर एक गड्ढा तैयार किया जाता था। हम बच्चों से बड़े भइया लोग पूरा काम कराते। रंग खेलने के बाद उसी में सबको डुबोया जाता था। माँ ने मुझे मना किया था, यह सब करने से लेकिन होली की उमंग में मैं माँ की हिदायतें भूल गई। माँ पहली मंजिल की बालकनी से मुझे  देख रही थी। बच्चे उससे पुए की माँग कर रहे थे। वह भी पुए उछाल कर नीचे फेंक रही थी। माँ के पुए पूरी बिल्डिंग में मशहूर थे। मैं हर बार की तरह पहला पुआ खा चुकी थी। आलू-कटहल दम, धनिये की चटनी और दहीबड़े का नंबर अभी आना बाकी था।

माँ ने वहीं से मुझे देखा और इशारा किया—गड्ढे  में मत कूदना। मैं फिर भी उसी ओर बढ़ने लगी, होली खेलने का मानो नशा चढ़ गया हो मुझे। लोगों ने पहले मेरे मुँह पर कुछ रगड़ कर मला। वे चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे—पोटीन मलो इसके मुँह पर,.... पोटीन पोटीन!

अब यह क्या नई बला थी? पोटीन?

जब तक मैं समझती बहुत सारे लोगों ने मिल कर मेरे चेहरे, हाथ और पैरों में रगड़ कर पोटीन कहा जाने वाला पदार्थ लगा दिया। अब मैं थोड़ा परेशान हुई। लेकिन सब उन्मत्त-से चीख रहे थे—होली है भाई होली है-बुरा मानो होली है। पुरानी फिल्मों के गाने लाउड्स्पीकर पर बज रहे थे—

होली के दिन खिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते हैं। ...जा रे जा नटखट...दे दूँगी तुझे गाली रे...मुझे समझो तुम भोली भाली रे....

आज सोचती हूँ तो लगता है कि एक ड्रामाई फिल्मी सीक्वेंस धीरे-धीरे पसर रहा था और उसमें मैं स्वेच्छा से समाती जा रही थी—एक अनुभवी अदाकार की तरह। बहुत हौसले और उमंग से भरी।

जब लोगों ने मुझे उछाल-उछाल कर गड्ढे में डुबोना शुरु किया तब पहली बार थोड़ा डर लगा। मेरे अंदर का अदाकर कहीं बिलाने लगा। मैं चिल्लाने लगी—बस बस बस..।

लेकिन भंग और रंग की मस्ती में डूबे लोगों के बीच मेरी कच्ची आवाज़ कोई वज़न नहीं रख पाई और पाँच-छह पछाड़ के बाद मुझे जाने दिया गया।

मैंने पराजित-सा महसूस किया। किसी और से नहीं, अपनी उमंग, अपनी हिम्मत के चले जाने का इतना गम हुआ मुझे यह शब्दों में बयां करना मुश्किल है। मैं मन-ही-मन सिसकते हुए घर पहुँची। माँ ने मेरी कुर्ती को ऐसे खींचकर मुझे झपिलाया मानो मुझपर कोई भूत चढ़ा हुआ हो जिसे वह उतारने पर तुल गयी थी।

पहले वह मुझे आईने के सामने ले गई—देख अपनी गत! मैंने देखा, वहाँ एक साढ़े तीन फुट का काले और स्टील पेंट के चमकदार उजले से रंगा, भूत खड़ा था। काला-सफेद भूत। मैं उसे देख जोर-जोर से रोने लगी। माँ ने उस दिन बहुत कोशिश की लेकिन उस भूत को भगाने में नाकाम रहीं। दो दिन बाद स्कूल जाने पर सभी ने मेरे चेहरे और हाथ पैरों पर चमड़ी छिले जाने के निशानों को देखकर पूछा, अरे गिर गई थी क्या? किसी कीड़े-मकोड़े ने काट लिया क्या?

मैंने कोई जवाब नहीं दिया, बस मन-ही-मन कसम खाई—अब कभी होली नहीं खेलूँगी।

अस्सी का दशक था और पापा का तबादला लखनऊ हो गया था। हम हज़रतगंज में रहते थे। और होली हर बार की तरह इस बार फिर आ गई थी। नए स्कूल में कान्वेंट की अपेक्षा ज़्यादा अराजकता थी। यहाँ मैंने देखा कि सज़ा के बावजूद बड़ी क्लास के बच्चे होली छुट्टी के पहले अबीर गुलाल हवा में फेंक रहे थे और कह रहे थे—आई लव यू। जिसके लिए यह प्रेम-निवेदन किया जा रहा था वह बखूबी समझ रहा था और प्रतिक्रिया में लजा रहा था या स्टूपिड, ईडियट, बास्टर्ड कह स्कूल गेट के बाहर निकल जा रहा था। लेकिन मुझे इन सब बातों से क्या? मैंने तो पिछले साल कसम खाई थी होली न खेलने की। लिहाज़ा मैं चुपचाप घर चली आयी। होली वाले दिन हमेशा की तरह, पहला बना हुआ पुआ खाया और बालकनी में खड़ी हो गई नीचे जाते, भंग के नशे में चूर लोगों को होली खेलते देखने में। तभी घर की घंटी बजी और पापा ने दरवाज़ा खोला। उनके ऑफिस के लोग थे।

होली मुबारक भाई साहब ,होली मुबारक भाभी जी। कहते हुए टोली अन्दर आई।

जब तक मैं उन लोगों से छिपकर कमरे में भागती, माँ ने मुझे खींचकर सबके सामने डाल दिया—अरे बेटा, ऐसे सूखी-सूखी-सी क्यों खड़ी हो? पीछे से दोनों छोटे भाई भी आ गए और आने वाले लोगों पर पिचकारियों से रंगों की बौछार करने लगे। घर की दीवारें और फर्श गुलाबी हो गए।

मैं भी रंगों से नहा गई। इसके बाद सभी लोग वहीं बालकनी में बैठ गए। सक्सेना अंकल अपने घर से मीट लाए थे, उसकी सुहानी खुशबू हवा में तिरने लगी।

पुआ, मीट और कटहल दम मौज में उड़ाया जाने लगा। कुछ लोग भंग की गो​िलयाँ भी लाए थे, जिसे स्वाद ले लेकर खाया जा रहा था। होली अपने उरुज पर चढ़कर सबके माथे पर नाच रही थी। अपनी खाई कसम के बावजूद न चाहते हुए भी मैं भी होली के नशे में डूब रही थी। हम भाई-बहन बाल्टी-बाल्टी भर-भर रंग सबलोगों पर उँड़ेल रहे थे, तभी...मुझे याद आता है इसी शोर-शराबे के बीच एक भँगेड़ी मस्ताना ज़ोर-ज़ोर से हज़रतगंज की मुख्य सड़क पर गाता हुआ जा रहा था—जब फागुन रंग झमकते हों...

मैंने होली खेलनी कभी नहीं छोड़ी।

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